विभिन्न विषयों पर होने वाले शैक्षणिक शोध (एकेडमिक रिसर्च) काफी महत्वपूर्ण होते हैं। एक खोजी पत्रकार के लिए अपनी खोजी रिपोर्टिंग प्रक्रिया में इनका सदुपयोग करना काफी लाभदायक होता है। मई 2022 में इंग्लैंड तथा कई अन्य देशों में मंकी-पॉक्स वायरस का प्रकोप फैला था। कई शैक्षणिक शोधों में पहले ही ऐसी आशंका व्यक्त की गई थी। मंकी-पॉक्स का अध्ययन करने वाले शोधकर्ता लंबे अरसे से पत्रिकाओं में प्रकाशित अध्ययन रिपोर्ट में सचेत कर रहे थे कि दुनिया के कई हिस्सों में इस वायरस का फैलाव हो रहा है। यदि खोजी पत्रकारों ने उन शैक्षणिक अनुसंधानों का सदुपयोग किया होता, तो इस वायरस के बारे में दुनिया को पहले ही सचेत करना संभव था।
सामाजिक समस्याओं की जांच करने और जिम्मेवार लोगों को जवाबदेह बनाने में खोजी पत्रकारों के लिए अकादमिक शोध काफी महत्वपूर्ण उपकरण है। 15 दिसंबर 2022 को, ‘द जर्नलिस्ट्स रिसोर्स‘ ने एक घंटे का प्रशिक्षण आयोजित किया। इसमें बताया गया कि शैक्षणिक शोध अध्ययनों के नतीजों का उपयोग करना और शोधकर्ताओं की मदद लेना समाचार संकलन को किस तरह मजबूत कर सकता है। इससे खोजी रिपोर्टिंग प्रक्रिया के प्रत्येक चरण में पत्रकारों को मदद मिलती है।
वेबिनार में इन दो प्रशिक्षकों ने प्रतिभागियों को इस विषय की समझ प्रदान करते हुए व्यावहारिक सुझाव दिए:
- नील बेदी, प्रो-पब्लिका में खोजी रिपोर्टर, पुलित्जर पुरस्कार विजेता।
- राचेल लोवेल, क्लीवलैंड स्टेट यूनिवर्सिटी में कार्यरत क्रिमिनोलॉजिस्ट, जो रिपोर्टर-शोधकर्ता सहयोग की वकालत करती हैं और ऐसे प्रयोग में शामिल होती हैं।
मैंने भी ‘पीयर-रिव्यू रिसर्च‘ को खोजी पत्रकारिता के काम में शामिल करने संबंधी अपने सुझाव दिए।
यदि आपको उक्त प्रशिक्षण वेबिनार में भाग लेने का मौका नहीं मिला हो, या आप दुबारा उसका लाभ लेना चाहते हैं, तो कृपया उसकी रिकॉर्डिंग देखें। यहां मैंने उस प्रशिक्षण के आधार पर अपने पांच पसंदीदा सुझाव (टिप्स) संकलित किए हैं। इनके आधार पर आप खोजी पत्रकारिता में शैक्षणिक शोध का बेहतर उपयोग कर सकते हैं।
1. किसी भी विषय पर खोजी रिपोर्टिंग परियोजना शुरू करने से पहले उससे संबंधित अकादमिक शोध का पता लगाएं। रिपोर्टिंग के शुरुआती चरण में ही उस मुद्दे या समस्या के बारे में अकादमिक शोध और शोधकर्ताओं की तलाश करें। इससे आपको उस संबंध में ज्ञात और अज्ञात जानकारियों का व्यापक अवलोकन करने और समझ पाने में मदद मिलेगी।
नील बेदी ने कहा- “किसी भी जांच की शुरुआत में आप उस विषय के विशेषज्ञ नहीं होते हैं। कई बार आपके लिए वह विषय पूरी तरह से नया हो सकता है। लेकिन आपको ऐसे लोग मिल सकते हैं, जो कई वर्षों से उन विषयों पर शोध कर रहे हैं। संभव है कि उनकी आजीविका भी उन विषयों से जुड़ी हो। इसलिए यदि आप उन लोगों और उनके काम से जुड़कर सीखते हैं, तो आपका काम बेहद आसान हो सकता है। आप उनसे साक्षात्कार कर सकते हैं। आप उनके काम को पढ़कर खुद अपनी विशेषज्ञता बना सकते हैं। जब आप कोई जांच करते हैं, तो आपको उस तरह की विशेषज्ञता जरूरी है। संभव है कि आप किसी चीज के बारे में कोई हानिकारक या नकारात्मक बात कहने वाले हैं। इसलिए आपको अपनी सामग्री के बारे में अच्छी तरह जानना जरूरी है।“
राचेल लोवेल कहती हैं- “पत्रकारों और शोधकर्ताओं के पास अक्सर किसी मुद्दे या समस्या के बारे में एक ही प्रकार के प्रश्न होते हैं। चूंकि शोधकर्ताओं ने अक्सर उन सवालों का जवाब देने की कोशिश पहले ही शुरू कर दी है, इसलिए वे पत्रकारों को डेटा और अन्य जानकारी देने या तलाशने में मदद कर सकते हैं। खासकर बड़े नीतिगत मामलों से जुड़ी परियोजनाओं को समझने में ऐसे शोधकर्ताओं का काफी महत्व है। जो लोग आपके विषय से जुड़े समान प्रश्न पूछ रहे हैं, उनसे बात करना एक महत्वपूर्ण तरीका है। ऐसे शोधकर्ता अलग-अलग तरीकों से डेटा का उपयोग करते हैं। वे यह भी जानते हैं कि उन प्रश्नों का उत्तर तथा संबंधित डेटा कहाँ मिलेगा। उन्होंने उन विषयों पर काम किया होता है। इसलिए वे पत्रकारों को बता सकते हैं कि कहाँ से खोजना शुरू करना है या डेटा कहाँ मिल सकता है। इसके कारण आपको कई प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है।“
2. एक बार जब आपको प्रासंगिक शोध और डेटा मिल जाए, तो शोधकर्ताओं से उस जानकारी को सरल भाषा में व्याख्या करने और समझाने में मदद के लिए अनुरोध करें। किसी महत्वपूर्ण दस्तावेज को पढ़ने या अपने डेटा विश्लेषण की समीक्षा करने और सुझाव मांगने में जरा भी न हिचकें।
राचेल लोवेल कहती हैं कि शोधकर्ता अपनी विशेषज्ञता को लेकर उत्साही रहते हैं। वे भी चाहते हैं कि जनता के पास सही जानकारी पहुंचे। इसलिए अधिकांश शोधकर्ता आपके सवालों का जवाब देना चाहते हैं। वे कोई लेख साझा करने के साथ ही उन चीजों को समझने में भी पत्रकारों की मदद करने को तैयार रहते हैं।
राचेल लोवेल ने सुझाव दिया कि पत्रकार पहले उस शोधकर्ता का भरोसा जीतने का समुचित प्रयास करें। कई बार ऐसे शोधकर्ता को रिपोर्टिंग प्रक्रिया की पूरी जानकारी नहीं होती है। संभव है कि किसी पत्रकार के साथ उनके नकारात्मक अनुभव रहे हों। इसलिए आपको उनके साथ बेहतर समझ बनाना जरूरी है। अगर आप ‘ऑन द रिकॉर्ड‘ तथा ‘ऑफ द रिकॉर्ड‘ जैसे शब्दों का उपयोग करते हैं तो इसका मतलब भी समझा दें। शोधकर्ता को यह बात स्पष्ट तौर पर बता दें कि उनकी बातों का आप अपनी न्यूज स्टोरी में किस तरह उपयोग करेंगे। आप उन्हें ‘ऑन द रिकॉर्ड‘ उद्धृत करेंगे अथवा नहीं, यह भी अच्छी तरह समझाने का प्रयास करें।
राचेल लोवेल कहती हैं- “शोधकर्ता आपके कवरेज के किसी हिस्से की समीक्षा करने या किसी अन्य तरीके से इनपुट प्रदान करने में सहयोग कर सकते हैं। यदि कोई शोधकर्ता आन द रिकॉर्ड जानकारी देना चाहता है, तो उसे यह जानना अच्छा लगेगा कि आप उसकी बातों को किस तरह से प्रस्तुत कर रहे हैं। इसमें वह अपना फीडबैक देते हुए कुछ शब्दों को थोड़ा बदलने का सुझाव दे सकता है। इससे उस विषय पर शोध की सही व्याख्या करने में मदद मिलेगी।“
आमतौर पर मीडिया संगठनों में किसी भी न्यूज स्टोरी के प्रकाशन से पहले किसी से साझा करने पर रोक होती है। लेकिन ऐसे शोध अध्ययन के मामलों में दूसरे तरीकों से आप शोधकर्ताओं की मदद ले सकते हैं। उदाहरण के लिए, आपने उनके जिस उद्धरण का उपयोग किया है, वह हिस्सा उनसे साझा करके उनका फीडबैक ले सकते हैं। कई मीडिया संगठन कुछ विशेष परिस्थिति में शोधकर्ताओं का सटीक फीडबैक सुनिश्चित करने के लिए किसी न्यूज स्टोरी के विशिष्ट अंश पढ़ने या सांख्यिकीय विश्लेषण की समीक्षा करने की अनुमति देते हैं।
3. आप जिस एजेंसी की जांच कर रहे हैं, वह यदि अपने कार्यों का मार्गदर्शन करने के लिए किसी विशिष्ट अध्ययन पर निर्भर है, तो उस शोध को खोजकर उसे अच्छी तरह समझ लें।
सरकारी एजेंसियां और अन्य संगठन अक्सर अपने निर्णयों को निर्देशित करने में सहायता के लिए किसी अकादमिक शोध पर भरोसा करते हैं। लेकिन संभव है कि उस शोध के निष्कर्षों को गलत समझा गया हो अथवा गलत तरीके से लागू किया गया हो। इसलिए पत्रकारों को यह समझना जरूरी है कि उस एजेंसी ने जिस शोध को आधार बनाया है, उसके निष्कर्ष के अनुरूप ही उस एजेंसी की भी समझ है अथवा नहीं।
नील बेदी ने कहा- “यदि आप एक रिपोर्टर हैं, और किसी विषय की जांच कर रहे हैं, तो हर चीज का दुबारा आकलन करना चाहिए। इसमें स्वयं किसी शोध के निष्कर्ष का आकलन करना भी शामिल होना चाहिए।“
वर्ष 2021 में नील बेदी को पुलित्जर पुरस्कार मिला। उन्होंने यह रिपोर्ट कैथलीन मैकग्रोरी (टाम्पा बे टाइम्स की रिपोर्टर) के साथ मिलकर की थी। फ्लोरिडा में एक काउंटी शेरिफ कार्यालय क्षेत्र के निवासियों और स्कूली बच्चों पर पुलिस अत्याचार संबंधी रिपोर्ट के लिए यह पुरस्कार मिला था। इस रिपोर्टिंग के दौरान कानून प्रवर्तन अधिकारियों ने उन्हें बताया कि यह परियोजना एक शोध के नतीजे पर आधारित थी। उस शोध रिपोर्ट के अनुसार बचपन में किसी आघात का अनुभव करने वाले बच्चों द्वारा बाद में हिंसक अपराध करने की अधिक संभावना होती है।
नील बेदी और कैथलीन मैकग्रोरी ने जब आपराधिक न्याय विद्वानों से संपर्क किया तो स्पष्ट हुआ कि शेरिफ कार्यालय ने उनके शोध की गलत व्याख्या की थी। जाने-माने क्रिमिनोलॉजिस्ट डेविड कैनेडी ने कहा कि बचपन के अनुभवों के आधार पर कोई भविष्य में कैसा व्यवहार करेगा, इसकी भविष्यवाणी करना पूर्णतया अवैज्ञानिक बात है।
शोधकर्ताओं की प्रतिक्रियाओं ने इस खोजी रिपोर्टिंग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नील बेदी ने कहा- “हमने उन शोधकर्ताओं को फोन करके बताया कि शेरिफ कार्यालय के अधिकारी उनके शोध के नतीजों को किस तरह उद्धृत कर रहे हैं। यह सुनकर शोधकर्ताओं ने हैरान होकर पूछा कि क्या हमारे शोध का इस तरह दुरूपयोग किया जा रहा है? यह एक भयानक कार्यक्रम है। हमारे शोधकार्य का इस तरह इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। वे हमारे निष्कर्ष से बहुत दूर जा रहे हैं और बच्चों को प्रताड़ित करने वाला कार्यक्रम बना रहे हैं। एक शोधकर्ता ने इसकी तुलना बाल शोषण से की।“
4. कोई शोध अध्ययन यदि पुराने डेटा पर आधारित हो, तब भी उसे नजरअंदाज न करें। शोधकर्ताओं से यह जानने का प्रयास करें कि उनके निष्कर्ष अब भी प्रासंगिक हैं या नहीं। अगर हां, तो किस तरह?
किसी शोध आलेख के डेटा आपको पुराना लगने के कई कारण हो सकते हैं। किसी रिसर्चर को सूचनाएं एकत्र करने में वर्षों लग सकते हैं। उनका शोधपत्र तैयार होने के बाद भी उसकी समीक्षा प्रक्रिया और अकादमिक जर्नल में प्रकाशित होने में समय लगता है। किसी पत्रकार को उसके आँकड़े पुराने लग सकते हैं। लेकिन आपको यह समझना चाहिए कि क्या शोध ‘बहुत पुराना‘ है और उसके निष्कर्ष प्रासंगिक हैं या नहीं।
मेरी सलाह यह है कि आप उस शोध अध्ययन के लेखकों तथा उस विषय के अन्य विद्वानों से इस संबंध में गंभीरता के साथ बात करें। वे आपको समझा सकते हैं कि उस शोध अध्ययन में जो रुझान और पैटर्न बताए गए हैं, वह आज भी मौजूद हैं अथवा नहीं। उनसे आप पूछ सकते हैं कि पहली बार डेटा एकत्र करने के बाद किसी घटना ने उन प्रवृत्तियों और पैटर्न को कैसे प्रभावित किया है। ऐसी जानकारियां आपको बेहतर में मदद कर सकती हैं।
राचेल लोवेल कहती हैं- “कुछ डेटा समय के साथ ज्यादा नहीं बदलते हैं। ऐसे मामलों में कुछ साल पुराना डेटा होने से आपके निष्कर्ष में कोई खास बदलाव नहीं आता है। आपके पास यह सोचने का कोई तार्किक कारण होना चाहिए कि कुछ साल पुराना डेटा या पैटर्न क्या आज सचमुच प्रासंगिक नहीं रहा?“
इसलिए पुराने डेटा का विरोध करने वाले संपादकों को बात यह समझने की जरूरत है कि ऐसे शोध अध्ययनों के डेटा का भी महत्व है।
5. आप जिस विषय की जांच कर रहे हैं वह चाहे जितना व्यापक या संकीर्ण हो, संभव है कि कोई शोधकर्ता वर्षों से उस विषय का अध्ययन कर रहा होगा।
राचेल लोवेल कहती हैं- “मैं पूरे भरोसे के साथ कह सकती हूं कि आपका चाहे कैसा भी विषय हो, कोई शोधकर्ता उस विषय पर अध्ययन जरूर कर रहा होगा। विशेष रूप से किसी नीतिगत विषय से संबंधित मामले में ऐसा जरूर होगा।“
नील बेदी ने वेबिनार में उपस्थित प्रतिभागियों से कहा- “आमतौर पर मैं जिस मुद्दे की जांच करता हूं, उससे जुड़े अध्ययनों को पढ़कर शोधकर्ताओं की तलाश करता हूं, जिनकी उसमें दिलचस्पी हो। मैं उस विषय के अंदर जाकर ऐसे अकादमिक पेपर पढ़ना शुरू कर देता हूं। भले ही उसका बड़ा हिस्सा आपको भ्रमित करने वाला हो और उसका कोई मतलब न निकलता हो। इसके बावजूद आप ऐसे दस्तावेजों को पढ़ने की कोशिश करें। इसे अपनी रिपोर्टिंग प्रक्रिया का हिस्सा बना लें। यह समझें कि आप क्या समझ सकते हैं? आप किस तरह ऐसे शोध अध्ययनों का उपयोग कर सकते हैं? यदि आपको प्रासंगिक शोधपत्र मिलें, तो उनके लेखकों या शोधकर्ताओं की सूची बनाकर उनके पास पहुंचें। जो आपसे बात करने को तैयार हों, उनसे बात करें।”
नील बेदी और राचेल लोवेल दोनों ने पहले ईमेल से संपर्क का सुझाव दिया। नील बेदी आम तौर पर शोधकर्ताओं से अन्य विशेषज्ञों के नाम संबंधी सुझाव भी मांगते हैं जो मददगार हो सकते हैं। उन्होंने कहा कि सही शोधकर्ताओं को खोजने में समय लग सकता है। एक बार जब आप उन्हें ढूंढ लेते हैं, तो उस रिश्ते को विकसित करने का प्रयास करें।
नील बेदी ने कहा- “अगर आपकी एक महीने लंबी जांच है, तो आप सिर्फ एक फोन कॉल में पूरी बात नहीं कर सकते हैं। यह एक प्रक्रिया है। शुरुआत में आप उस विषय को सीखने की कोशिश करते हैं। आप उनसे जटिल चीजों को समझाने का आग्रह करते हैं। यह ऐसा दौर होता है जैसे कि आप महज पांच साल उम्र के हों। एक पत्रकार के रूप में आपको इसकी आवश्यकता है। आपको अपने ऐसे पाठकों को समझाना है, जो उस विषय के बारे में कुछ नहीं जानते हैं। प्रारंभिक समझ के बाद आप धीरे-धीरे कठिन सवालों की तरफ बढ़ते हैं। तब आप वास्तव में खोजी रिपोर्टिंग प्रक्रिया में गहराई तक जा रहे हैं। आप उन चीजों पर चर्चा शुरू करते हैं जिनके बारे में बात करना विशेषज्ञों को पसंद है। इस क्रम में आप उन शोधकर्ताओं से अच्छे संबंध बनाते हैं।“
यह लेख मूल रूप से ‘द जर्नलिस्ट्स रिसोर्स‘ द्वारा प्रकाशित किया गया था। यहां अनुमति लेकर पुनर्मुद्रित किया गया है।
अतिरिक्त संसाधन
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डेनिस-मैरी ऑर्डवे वर्ष 2015 में ‘द जर्नलिस्ट्स रिसोर्स‘ से जुड़ी हुई हैं। इससे पहले वह ऑरलैंडो सेंटिनल और फिलाडेल्फिया इन्क्वायरर सहित अमेरिका और मध्य अमेरिका के विभिन्न समाचार पत्रों और रेडियो स्टेशनों के लिए रिपोर्टिंग कर चुकी हैं। उनकी रिपोर्ट्स यूएसए टुडे, द न्यूयॉर्क टाइम्स, शिकागो ट्रिब्यून और वाशिंगटन पोस्ट जैसे प्रकाशनों में भी प्रकाशित हुई हैं।