तानाशाही का खेल: ऐसे समझें पत्रकार

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दुनिया के कई प्रमुख लोकतांत्रिक देशों में ‘लोकलुभावन राष्ट्रवाद’ का उभार देखा जा रहा है। इनमें अमेरिका, भारत, ब्राजील सहित कई अन्य देश शामिल हैं। कई देशों में निर्वाचित नेता विभिन्न तरीकों से तानाशाही का खेल कर रहे हैं। डिजिटल माध्यमों के दुरुपयोग, बड़े पैमाने पर प्रवास (माइग्रेशन) और जलवायु परिवर्तन के इस दौर में तानाशाही को बेहद आसान रास्ते मिल रहे हैं।

द ग्राउंडट्रुथ प्रोजेक्ट की ‘डेमोक्रेसी अनडन: द ऑथोरिटेरियन प्लेबुक’ (Democracy Undone: The Authoritarian’s Playbook) नामक योजना इस विषय को समझने के लिए काफी महत्वपूर्ण  है। ‘द ग्राउंडट्रुथ प्रोजेक्ट’ ने दुनिया के सात लोकतांत्रिक देशों में तानाशाही के बढ़ते संकेत का यह अध्ययन किया है। इस परियोजना में ग्राउंडट्रुथ के पत्रकारों ने बताया कि किस तरह सातों देशों के राष्ट्रवादी नेता एक ही ‘प्लेबुक’ के जरिए खेल रहे हैं। इनमें अमेरिका, भारत, ब्राजील, कोलंबिया, हंगरी, पोलैंड और इटली शामिल हैं।

‘द ग्राउंडट्रुथ प्रोजेक्ट’ की रिपोर्टिंग टीम ने पत्रकारों की सुविधा के लिए तानाशाही पर यह ‘प्लेबुक’ तैयार की है। इसमें उन सात देशों के राजनेताओं द्वारा सत्ता हासिल करने, अपने विचारों को सब पर थोपने और अपना एजेंडा लागू करने के तरीकों की जानकारी दी है। इनमें लोकलुभावन नेताओं और उनके रणनीतिकारों द्वारा इंटर-कनेक्टेड वेब का उपयोग किए जाने, भाषणों और तकनीकों से जुड़े तरीके भी शामिल हैं।

इस रिपोर्ट का मकसद यह साबित करना नहीं है कि इन देशों में अब एक तानाशाही या सत्तावादी शासन आ चुका है। यह रिपोर्ट लोकलुभावन राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने वाली प्रवृत्तियों की ओर इशारा करती है। अगर इतिहास एक मार्गदर्शक है, तो ऐसे देशों में भविष्य में तानाशाही सरकार बन सकती है। लोकतंत्र के विद्वानों के अनुसार चीन, रूस, सऊदी अरब इत्यादि प्रमुख तानाशाही देशों की तरह के रुझान इन सात देशों में भी बढ़ रहे हैं। इनमें लोकतांत्रिक मूल्यों को दरकिनार करके वैश्विक व्यवस्था को नया आकार देने की कोशिश दिख रही है।

प्लेबुक: तानाशाही के सात खेल

डर को हथियार बनाना तानाशाहों का यह आसान तरीका है। लोगों में अज्ञात डर पैदा करो। फिर उससे रक्षा करने का दावा करो। इसके लिए हिंसा की भाषा को बढ़ावा दिया जाता है। कठोर दंडात्मक संस्कृति की वकालत की जाती है। घर में हथियार और सैन्य शक्ति को बढ़ावा दिया जाता है। इसके आलोचकों को धमकाया जाता है कि यदि वे विरोध करेंगे तो उन्हें नुकसान होगा।

बाहरी लोगों को निशाना बनाना– अप्रवासियों, विदेशियों और कथित बाहरी लोगों के खिलाफ नफरत पैदा करना और ज़ेनोफ़ोबिया की आग भड़काना। देश के आर्थिक संकट तथा हरेक समस्या के लिए इन्हें दोषी ठहराना। राजनीतिक विरोधियों को इन काल्पनिक दुश्मनों के शुभचिंतक के रूप में बदनाम करना।

लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करना– अदालतों को अपने हाथ में लेना, सत्ता पर नियंत्रण और संतुलन (चेक एंड बैलेंस) लगाने वाली संस्थाओं को खत्म करना, सरकार की कार्यकारी शक्ति को परिभाषित करने वाले कानूनों को दरकिनार करना, चुनावों की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को कमजोर करना।

इतिहास का पुनर्लेखन– स्कूलों और मीडिया पर नियंत्रण बढ़ाते हुए इतिहास की मनमानी व्याख्या करना, निरंकुश राज की भावना को मजबूत करने वाले विचारों के प्रति जनता को उकसाना।

धार्मिक आस्था का शोषण – अल्पसंख्यकों को निशाना बनाते हुए धार्मिक बहुसंख्यक आबादी को एकजुट करना। राष्ट्रीय पहचान को धार्मिक पहचान से जोड़ना। धर्म और जाति के नाम पर ध्रुवीकरण को बढ़ावा देना।

फूट डालो और राज करो – नफरत की भाषा का प्रयोग करना, हिंसक उन्मादी अराजक तत्वों को सामाजिक विभाजन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करना, अत्यधिक राजनीतिक शक्ति हासिल करने के लिए बनावटी संकट का हौव्वा खड़ा करना।

सच और झूठ का फर्क मिटाना – स्वतंत्र एवं निष्पक्ष मीडिया को जनता का दुश्मन बताकर पत्रकारों पर हमले करना। सरकार की कमियों को उजागर करने वाली खबरों को ‘नकली समाचार’ कहकर  खारिज करना। गलत जानकारी या वैकल्पिक झूठे तथ्यों के जरिए वैध और वास्तविक जानकारी को नीचा दिखाना। मीडिया के माहौल को अगंभीर और अविश्वसनीय करके भ्रम की स्थिति पैदा करना। सच के प्रति लोगों की जिज्ञासा कम करना।

तानाशाही की इस प्लेबुक को दुनिया भर में लागू करने वाला एक सामान्य सूत्र कौन है? स्टीव बैनन के रूप में इसे देख सकते हैं। वह एक अमेरिकी नौसेना अधिकारी थे, जो गोल्डमैन सैच कंपनी में बैंकर बने। वह दक्षिणपंथी मीडिया की एक हस्ती हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने उन्हें अपना सलाहकार बनाया था। उन्होंने ‘कैम्ब्रिज एनालिटिका’ बोर्ड का सदस्य बनकर दुनिया भर में बड़ा ‘खेल’ दिखाया।

यूरोप, दक्षिण अमेरिका और एशिया के प्रमुख लोकलुभावन राजनीतिक दलों पर स्टीव बैनन का गहरा प्रभाव है। उनके कार्यों को ‘द मूवमेंट’ कहा जाता है। ‘कैंब्रिज एनालिटिका’ ने अमेरिका, ब्राजील, यूके, भारत और फिलीपींस के चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसने मतदाताओं को प्रभावित करने और कुछ खास उम्मीदवारों और कट्टरपंथी विचारों को आगे बढ़ाया। इसके लिए सोशल मीडिया के उपयोगकर्ताओं के डेटा पर आधारित लक्षित प्रचार अभियान चलाया गया।

सोशल मीडिया के दुरुपयोग में ‘एल्गोरिदम’ का खास महत्व है। लेकिन इसके बगैर भी काफी खेल होना संभव है। अब आईटी सेल के भुगतान प्राप्त लोगों के अलावा स्वैच्छिक एवं अवैतनिक प्रचारकों की भी बड़ी संख्या है। ऐसे लोग फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप सहित अन्य सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर जानबूझकर या अनजाने में गलत सूचना फैला सकते हैं। इनके कारण जनता की राय (जनमत/पब्लिक ओपिनियन) पर गहरा असर होता है। पहले सिर्फ सरकारी एजेंसियां और प्रमुख मीडिया संस्थान ही पब्लिक ओपिनियन को प्रभावित कर सकते सकते थे। लेकिन अब सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका हो चुकी है।

दुनिया में तानाशाही विचारों को आगे बढ़ाने वाला एक और सामान्य सूत्र अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प हैं। उन्होंने हमारी इस परियोजना में शामिल अन्य छह देशों के राजनेताओं के साथ मधुर संबंध बनाए। यानी भारत, ब्राजील, कोलंबिया, हंगरी, पोलैंड और इटली के साथ। डोनाल्ड ट्रम्प ने इन छह देशों के अलावा तुर्की (रेसेप तईप एर्दोगन), सऊदी अरब (किंग सलमान), मिस्र (अब्देल फत्ताह अल-सीसी), फिलीपींस (रोड्रिगो दुतेर्ते), उत्तर कोरिया (किम जोंग) और रूस (व्लादिमीर पुतिन) जैसे निरंकुश शासन के साथ भी घनिष्ठ संबंध कायम किए।

डोनाल्ड ट्रम्प ने सितंबर 2019 में ह्यूस्टन में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ ‘हाउडी मोदी’ रैली कराई। ट्रम्प ने ब्राजील के राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो को उनकी चुनावी जीत के बाद त्वरित बधाई दी। हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बन का व्हाइट हाउस में गर्मजोशी से स्वागत किया। ऐसे कदमों के जरिए ट्रम्प ने एक खास दिशा में जाने का प्रयास किया।

ट्रम्प की विदेश नीति भी तानाशाही नेताओं के साथ अभूतपूर्व सहयोग पर आधारित थी। उन्होंने तुर्की के साथ एक समझौता करके उत्तर-पूर्व सीरिया में सैन्य घुसपैठ की अनुमति दी। इसके कारण अमेरिका के लंबे समय से कुर्द सहयोगियों को गंभीर खतरे का सामना करना पड़ा। रूसी और सीरियाई सरकारों को वहां अधिक घुसपैठ का अवसर मिला। हजारों अतिरिक्त अमेरिकी सैनिकों को सऊदी किंगडम में भेजकर पत्रकार जमाल खशोगी की हत्या के मामले को रफादफा करने में सऊदी सरकार को मदद प्रदान की।

वर्ष 2018 में स्टीवन लेवित्स्की और डैनियल ज़िब्लैट ने ‘हाऊ डेमोक्रेसीज़ डाई’ शीर्षक पुस्तक लिखी। इसमें उन्होंने बताया कि ट्रम्प के गठजोड़ और किस तरह उनके अपने देश अमेरिका में ही विफल साबित हुए। लेखकों ने इसे “तानाशाहों के लिए एक लिटमस टेस्ट” कहा है।

तानाशाही के चार मानदंड हैं :

  • लोकतांत्रिक प्रणाली के मान्य नियमों को अस्वीकार करना या उनके प्रति कमजोर प्रतिबद्धता रखना
  • विपक्ष के महत्व से इनकार करना, विपक्ष-मुक्त देश की वकालत करना
  • हिंसक विचारों और प्रवृतियों को बढ़ावा देना
  • मीडिया, विपक्ष और नागरिकों की स्वतंत्रता पर लगाम लगाने की कोशिश करना

उक्त पुस्तक के अनुसार ट्रम्प ने इन चारों मानदंड को पूरा किया। ऐसा अमेरिका के इतिहास में पहली बार हुआ।

लेखक और विद्वान सारा केंडज़ियर के अनुसार ट्रम्प प्रशासन ने “अधिनायकवादी क्लेप्टोक्रेसी” के रूप में अपने गठबंधन के राजनेताओं और उनके साथियों के एक छोटे समूह को लाभ पहुंचाया। दूसरी ओर, उन्होंने स्वतंत्र प्रेस और लोकतांत्रिक संस्थानों पर हमले किए। साथ ही, दुनिया भर के दमनकारी शासकों को संरक्षण प्रदान किया।

एक उदाहरण देखें। वर्ष 2011 से 2015 के बीच सीरिया की सेदनाया जेल में 13,000 न्यायेत्तर हत्याओं के मामले सामने आए। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने इस पर रिपोर्ट दी। लेकिन सीरिया के तानाशाह बशर अल-असद ने इस रिपोर्ट को साफ खारिज कर दिया। बोले- “इन दिनों आप कुछ भी बना सकते हैं। हम एक फेक न्यूज के दौर में जी रहे हैं।”

अमेरिका में मैक्सिको के पूर्व राजदूत आर्टुरो सरुखान ने ट्विटर पर लिखा- “अमेरिका में लोकतंत्र के साथ जो होता है, उसकी गूंज पूरी दुनिया में सुनाई देती है। ट्रम्प के कार्यकाल में लोकतंत्र की गिरावट का असर भी पूरी दुनिया में दिखाई देता है।”

लोकतंत्र काफी नाजुक प्रणाली है। यह अंदर से हमले के लिए अतिसंवेदनशील है। लोकलुभावन तानाशाह नेताओं के पास चुनावी जीत को कथित ‘जनादेश’ में नाटकीय रूप से बदलने की ताकत होती है। वे सत्ता संरचना को बदलकर व्यापक जनसमुदाय पर महज कुछ लोगों का राज कायम करने का प्रयास करते हैं। इसके लिए आर्थिक संकट और जनता के मन में पहले से मौजूद कई तरह के पूर्वाग्रहों का भी सहारा लिया जाता है।

इस विरोधाभास को प्रिंसटन विश्वविद्यालय के राजनीतिक वैज्ञानिक जान-वर्नर मुलर ने अपनी वर्ष 2016 की पुस्तक ‘व्हाट इज़ पॉपुलिज़्म’ में समझाया है। उन्होंने लिखा- “अभिजात्य विरोधी होने के साथ ही लोकलुभावन राजनेता हमेशा बहुलता के विरोधी होते हैं। ऐसे राजनेता यह दावा करते हैं कि जनता का एकमात्र प्रतिनिधि वही हैं।”

उदाहरण के लिए, राष्ट्रपति पद के नामांकन पर चर्चा के दौरान रिपब्लिकन नेशनल कन्वेंशन में राष्ट्रपति ट्रम्प ने दावा किया- “सिस्टम को मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता। इसलिए मैं ही इसे ठीक कर सकता हूं।”

ऐसी तानाशाही प्रवृतियों में कई खतरनाक तर्क दिए जाते हैं। कुछ समूह खुद को देश के संसाधनों का अधिक हकदार समझते हैं। वह ऐसा माहौल भी बनाते हैं मानो देश की सुरक्षा का पूरा दायित्व उन पर ही है। उनके अनुसार, अन्य ‘समूहों’ से देश की सुरक्षा को खतरा है।

तानाशाही प्रवृति वाली सरकारों में आम नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकार छीन लिए जाते हैं। पत्रकारों, राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में डाला जाता है। पुलिस को मनमाने अधिकार मिल जाते हैं। धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यकों की स्वतंत्रता को सीमित करने वाले नए कानून बनाए जाते हैं। हिंसा, आर्थिक तंगी और जलवायु प्रदूषण से अस्थिर क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर विस्थापन की प्रक्रिया को बढ़ावा मिलता है। जलवायु परिवर्तन की पुष्टि करने वाले वैज्ञानिक तथ्यों से इनकार किया जाता है।

ग्राउंडट्रुथ फैलो सौम्या शंकर ने ‘साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट’ के लिए एक रिपोर्ट लिखी। इसमें बताया कि भारत के कुछ चरम हिंदू राष्ट्रवादियों ने मुसलमानों के खिलाफ नफरत को किस तरह बढ़ावा दिया। इसमें दुनिया भर के श्वेत वर्चस्व-वादियों के विचारों की झलक भी मिलती है।

मैसाचुसेट्स-एमहर्स्ट विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में मुसलमानों, ईसाइयों और सिखों के खिलाफ घृणा अपराध में वृद्धि हुई है। जम्मू-कश्मीर में एक नाटकीय नीतिगत बदलाव के कारण मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों में हिंसा और बंदी की नौबत आई।

पत्रकार काशिफ-उल हुदा ने ग्राउंडट्रुथ की सौम्या शंकर को बताया- “मोदी के आने के बाद उनके लोगों को लगता है कि वे हिंसा करके भी बच सकते हैं। ऐसे लोग सोशल मीडिया में इस्लाम के खिलाफ खुलेआम नफरत फैलाते हैं।”

यह रिपोर्ट आने के बाद मोदी समर्थकों ने हमारी पत्रकार सौम्या शंकर के खिलाफ ऑनलाइन उत्पीड़न अभियान शुरू कर दिया। सभी राजनीतिक विरोधियों और स्वतंत्र पत्रकारों के साथ यही सलूक किया जाता है।

इस आलेख के प्रारंभिक हिस्से में हमने अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के सलाहकार स्टीव बैनन की भूमिका का वर्णन किया था। उनसे जुड़ा एक अन्य प्रसंग देखें। अमेरिका में भारत के तत्कालीन राजदूत हर्ष श्रृंगला ने सितंबर 2019 में स्टीव बैनन से मुलाकात की। इसके बाद उन्होंने एक ट्वीट करके स्टीव बैनन को ‘महान धर्म-योद्धा’ और हिंदू धर्म शास्त्र का अनुयायी बताया। हालांकि बाद में उस ट्वीट को डिलिट कर दिया। यह बात स्टीव बैनन की वर्ष 2017 की एक प्रोफ़ाइल पर आधारित थी। इसमें हिंदू धर्म के संदर्भ में स्टीव बैनन की विश्वदृष्टि को समझाया गया था। इसमें कर्तव्य की अवधारणा और पारंपरिक सामाजिक मूल्यों के प्रभुत्व की वापसी जैसी काल्पनिक बातें कही गई थीं।

ब्राजील से ग्राउंडट्रुथ के फैलो लेटिसिया डुआर्टे ने रिपोर्ट की है। वहां राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो के नेतृत्व में एक हिंसक राष्ट्रवादी पुनरुत्थान अभियान चल रहा है। इस दौरान प्रगतिशील राजनीतिक लोगों, स्वदेशी अमेजोनियन जनजातियों और पत्रकारों को निशाना बनाया जा रहा है।

डोनाल्ड ट्रम्प की तरह ब्राजील के राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो भी प्रेस को ‘जनता का दुश्मन’ कहते हैं। उनके पास भी स्टीव बैनन जैसा सलाहकार ओलावो डी कार्वाल्हो है। उसने बोल्सोनारो को जीत के लिए अलंकारिक भाषा प्रदान करने और सोशल मीडिया में काफी ऑनलाइन फॉलोअर जुटाने में मदद की।

ब्राजील दूतावास ने मार्च 2019 में वाशिंगटन, डीसी में रात्रिभोज का आयोजन किया। इसमें डोनाल्ड ट्रम्प और स्टीव बैनन के साथ ब्राजील के राष्ट्रपति और उनके सलाहकार ने मुलाकात की। इस दौरान बोल्सोनारो ने कहा- “मेरा सपना ब्राजील को नापाक वामपंथी विचारधारा से मुक्त करना है। हम जिस क्रांति की तरफ बढ़ रहे हैं, उसका बड़ा दायित्व हमलोगों पर ही है।”

अगस्त 2019 में ब्राजील के सर्वोच्च राजनयिक पुरस्कार से सम्मानित होने के कार्यक्रम में सलाहकार ओलावो डी कार्वाल्हो ने बड़बोलेपन के साथ कहा-  “ब्राजील के सांस्कृतिक विकास में मेरा योगदान हमारी सरकार द्वारा किए जा रहे किसी भी अन्य काम की तुलना में काफी बड़ा है। मैं ब्राजील का सांस्कृतिक इतिहास बदल रहा हूं। सरकारें आती और जाती हैं, लेकिन संस्कृति हमेशा कायम रहती है।”

तानाशाही की यह भाषा जानी-पहचानी है। ‘कैम्ब्रिज एनालिटिका’ के पूर्व कर्मचारी क्रिस्टोफर वायली ने मई 2019 में अमेरिकी कांग्रेस के सामने एक व्हिसल ब्लोअर के रूप में गवाही दी। उन्होंने बताया कि चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प की मदद और सोशल मीडिया अभियान चलाने के लिए ‘कैम्ब्रिज एनालिटिका’ कंपनी ने फेसबुक डेटा का दुरूपयोग किया था। इसके पीछे स्टीव बैनन की सोच यह थी कि अमेरिकी राजनीति में स्थायी परिवर्तन लाने के लिए सांस्कृतिक युद्ध एक प्रमुख साधन है।

चार्लोट्सविले में हिंसक श्वेत राष्ट्रवादी रैली में एक प्रदर्शनकारी मारा गया था। उस वक्त स्टीव बैनन ने ट्रम्प के सलाहकार के रूप में अपना पद छोड़ दिया। इसके तुरंत बाद स्टीव बैनन ने हंगरी के विक्टर ओर्बन और इटली के अति-दक्षिणपंथी उप-प्रधानमंत्री मैटेओ साल्विनी के साथ मिलकर काम करते हुए यूरोप में अपने प्रयासों को केंद्रित किया।

स्टीव बैनन ने मार्च 2019 में एल पेस से कहा- “मैटेओ साल्विनी (इटली) के साथ मेरा एक असाधारण रिश्ता है। मुझे लगता है कि वह और विक्टर ओर्बन (हंगरी) आज यूरोप के दो सबसे महत्वपूर्ण राजनेता हैं। इन दोनों ने जूदेव-ईसाई पश्चिमी विचारों का बचाव ट्रम्प से भी अधिक किया है। यह स्पेन की दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी पार्टी ‘वोक्स‘ के भी करीब है। पारंपरिक परिवार, समाज संरचना, सांस्कृतिक मार्क्सवाद के खिलाफ युद्ध इत्यादि पर उनके विचार महत्वपूर्ण हैं। यह आंदोलन लोकलुभावन, राष्ट्रवादी और परंपरावादी है। बोल्सोनारो और साल्विनी उनके सबसे अच्छे प्रतिनिधि हैं।”

उदार लोकतांत्रिक मूल्यों और उन्हें मजबूत करने वाली वैश्विक संस्थाओं के खिलाफ एक अभियान दुनिया भर में चलाया जा रहा है। स्टीव बैनन और उनके सहयोगी इस काम में काफी सफल साबित हुए हैं। उनके इस “सांस्कृतिक युद्ध” में इंटरनेट और मीडिया द्वारा खाद-पानी उपलब्ध कराया जा रहा है। यह अब एक प्रमुख वैश्विक प्रतिमान बनता जा रहा है।

बोल्सोनारो, मोदी, ओर्बन, काज़िंस्की और ट्रम्प जैसे नेता लोकतांत्रिक चुनावों के जरिए चुनकर आते हैं। इसके बाद अपने लोकलुभावन तानाशाही तरीकों से लोकतंत्र को नियंत्रित और सीमित करते हैं। अपने एजेंडे को पूरा करने के लिए खास किस्म की मशीनरी का उपयोग करते हैं।

उदार एवं प्रगतिशील लोग बहुलतावादी दुनिया में भरोसा रखते हैं। उन्हें लोकलुभावन राष्ट्रवाद के रूप में तानाशाही प्रवृतियों को समझना होगा। इसके लिए ‘द ऑथोरिटेरियन प्लेबुक’ का अध्ययन करना उपयोगी होगा।

बढ़ती तानाशाही को कैसे कवर करें पत्रकार?

सरकारों को जवाबदेह ठहराना और जटिल नीतियों पर रिपोर्टिंग करना कोई सामान्य चुनौती नहीं है। लेकिन जब खुद सरकारों द्वारा लोकतंत्र पर हमला किया जा रहा हो, तो पत्रकारिता करना काफी मुश्किल और खतरनाक हो जाता है। पत्रकारों को ऐसी ताकतों एवं ऐसे स्रोतों से निपटने के लिए अधिक साधन-संपन्न और अच्छी तरह तैयार रहने की आवश्यकता है। प्रभावशाली लोगों से व्यक्तिगत और ऑनलाइन संपर्क करते समय अधिक सावधानी बरतना जरूरी है।

इस रिपोर्टिंग परियोजना की योजना बनाते समय हमने पत्रकारों के सामने इन चुनौतियों को पूरी तरह ध्यान में रखा। हमने आठ पत्रकारों को इन सात देशों में यह रिपोर्ट करने के लिए भेजा कि इन देशों में लोकतंत्र किस हाल में है। इन देशों के राजनेता किस तरह उसी “प्लेबुक” के जरिए तानाशाही का खेल कर रहे हैं। जिस लोकतंत्र ने उन्हें चुना, उसी लोकतंत्र को कमजोर कर रहे हैं। हमारे फेलो पत्रकारों ने लेखों और पॉडकास्ट की एक श्रृंखला तैयार की। इससे तानाशाह राजनेताओं की रणनीति का पता चलता है। साथ ही, इन परिस्थितियों में रिपोर्टिंग की चुनौतियों का भी खुलासा होता है।

यह गाइड तैयार करने के लिए हमने इन पत्रकारों से अपने अनुभव लिखने का अनुरोध किया। जिन देशों में लोकतंत्र को सीमित किया जा रहा हो, वहां रिपोर्टिंग के सुझाव यहां संकलित हैं। उन पत्रकारों के विचारों को अधिक स्पष्ट और संक्षिप्त करने के लिए संपादित किया गया है। उनसे हमने पूछा गया था कि आप उन पत्रकारों को क्या व्यावहारिक सलाह देंगे, जिनके देश में लोकतंत्र का क्षरण हो रहा है? यहां सबके विचार प्रस्तुत हैं।

1. राजनेताओं के तरीकों पर शोध करें

किसी भी इंटरव्यू में जाने से पहले उस राजनेता या अधिकारी के बारे में अच्छी तरह अध्ययन कर लें। प्रेस पर हमला और पत्रकारों को बदनाम करना इन नेताओं की प्रमुख रणनीति है। इसलिए हमें इसे पहचानने और ऐसे खतरे से बचने के लिए अतिरिक्त तैयार रहना होगा। उनकी विचारधारा और जीवनी का अध्ययन करने के साथ ही प्रेस को डराने और वास्तविकता को विकृत करने की उनकी रणनीति के बारे में भी आपको पता लगाना चाहिए।

– लेटिसिया डुआर्टे, ग्राउंडट्रुथ फेलो, ब्राजील

2. ऑनलाइन और ऑफलाइन खतरों का आकलन करें

आप ट्रोलिंग, धमकियों और वास्तविक हिंसा से निपटने के लिए तैयार रहें। हमेशा याद रखें कि कमजोर होते लोकतंत्र में आपकी रिपोर्टिंग को तोड़मरोड़ कर, गलत तरीके से पढ़ा जा सकता है। उसकी गलत व्याख्या की जा सकती है। अपने संपादकों और साथियों के साथ जोखिम का मूल्यांकन करें। सभी आवश्यक सावधानी बरतें।

– सौम्या शंकर, ग्राउंडट्रुथ फैलो, भारत

3. जागरूक रहें कि लोग अपने देश को कैसे देखते हैं

जिन देशों के राजनेता अपनी नाकामियों के कारण दुनिया भर में बदनाम हों, वहां की स्थानीय आबादी अपने देश के प्रति काफी संवेदनशील होती है। उन्हें लगता है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गलत ढंग से चित्रित किया जा रहा है। ऐसे लोगों से इंटरव्यू के दौरान खास सावधानी बरतने की जरूरत है।

मेरे पास लोग आकर कहते हैं- “मैं एक सम्मानजनक जीवन जीता हूं। जो कुछ मेरे पास है, उसे मैंने कड़ी मेहनत करके कमाया है। लेकिन जहां मैं पैदा हुआ वहां और अमेरिका जैसे एक विकसित देश में इतना फर्क क्यों है?”

आम लोगों को ऐसा लगता है कि आप व्यक्तिगत रूप से दोष लगा रहे हैं कि उनका देश क्या कर रहा है। इससे उनका भरोसा जीतना और साक्षात्कार लेना कठिन हो जाता है। मैं इस बात से चकित हूं कि विकासशील देशों के पत्रकार अन्य विकासशील देशों के बारे में बात करने में कितने कुशल हैं, भले ही वह देश अन्य देशों की तुलना में पूरी तरह से अलग हो! बेशक, ऐसा उन आम लोगों के साथ होता है जिनका आप साक्षात्कार कर सकते हैं, राजनेताओं का नहीं। आप देश की स्थिति के लिए राजनेताओं को दोष दे सकते हैं।

– ऊना हजदारी, ग्राउंडट्रुथ फैलो, पोलैंड

4. बतौर पत्रकार अपनी भूमिका समझें

अक्सर तानाशाही प्रवृति के लोग पत्रकारों को अपने साथ लड़ाई में उलझाना चाहते हैं। आपको इससे बचना होगा। उनकी बातों को व्यक्तिगत रूप से न लें। ओवर रिएक्ट न करें। अपने प्रश्नों पर ध्यान केंद्रित रखें। प्रत्येक विवरण पर ध्यान दें, ताकि बाद में अपनी रिपोर्ट में हर चीज का वर्णन कर सकें। जितना संभव हो, उतना विस्तार से सब कुछ रिकॉर्ड और दस्तावेज करें, क्योंकि निरंकुश नेता आपके ऊपर ‘फर्जी समाचार’ फैलाने का आरोप लगाएंगे।

– लेटिसिया डुआर्टे, ग्राउंडट्रुथ फैलो, ब्राजील

5. पहले अपनी रिपोर्टिंग योजना बनाएं

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि शुरू से अंत तक अपनी पूरी रिपोर्टिंग की योजना पहले से ही तैयार कर लें। समय और परिस्थिति के साथ चीजें विकसित होंगी। इसलिए आपको अपने शोध और रिपोर्टिंग लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। अगर आप किसी अन्य देश में जाकर रिपोर्टिंग कर रहे हों, तो उस देश के बारे में अच्छी तरह जानने के लिए किताबी कीड़ा बन जाएं। उस देश के प्रेस नियमों को समझें। एक विदेशी विजिटर के रूप में अपने अधिकारों को जान लें। उन संगठनों का पता लगाएं, जो आपके लिए मददगार हो सकते हैं। यदि आप विदेश से आए हैं, तो अपने विचारों के संबंध में विभिन्न स्रोतों, विश्लेषकों, सहकर्मियों के साथ परीक्षण करके लीड प्राप्त करें। मैंने ऐसा ही किया। विदेशी राजनयिक भी उपयोगी होते हैं।

स्थानीय मामलों में सहयोग के लिए पत्रकारिता पृष्ठभूमि वाले किसी एक अच्छे सहयोगी की मदद लें। वह स्थानीय भाषा अच्छी तरह जानता हो। अपने स्रोतों के साथ हमेशा ईमानदार रहें, भले ही वे बाद में मुकर जाएं। कभी-कभी यह दिखावे के लिए भी होता है। अगर आप अधिकारियों का ‘ऑन-रिकॉर्ड’ या ‘ऑफ-द-रिकॉर्ड’ साक्षात्कार कर रहे हैं, तो अपने तथ्यों और आंकड़ों की तीन बार जांच करें।

– क्वेंटिन एरियस, ग्राउंडट्रुथ फैलो, हंगरी

6. सार्वजनिक आयोजनों का उपयोग करें

प्रेस के साथ पारदर्शी संबंध नहीं रखने वाले नेताओं का स्टेटमेंट लेने का एक अच्छा तरीका है। उनसे किसी सार्वजनिक आयोजन के दौरान अचानक अपना सवाल पूछ लें। ऐसे लोग आम तौर पर स्वतंत्र और निष्पक्ष मीडिया के सवालों का जवाब नहीं देते। इनसे कोई साक्षात्कार करना भी मुश्किल है। जो मीडिया संगठन उन नेताओं के पक्षधर नहीं हों, उनके सवालों का जवाब भी नहीं देना चाहते। इसलिए यदि आप उनके किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में जाते हैं, तो उस दौरान उनसे कोई प्रश्न पूछना आसान होता है। वहां वे आपसे ऐसे सवाल की उम्मीद नहीं करेंगे। इसके कारण संभव है कि आपको कोई जवाब मिल जाए।

मुझे किसी वर्षगांठ या किसी नए स्कूल या कार्यक्रम के उद्घाटन में जाना पसंद है। वहां ऐसे नेता किसी महत्वपूर्ण सवाल की उम्मीद नहीं करते। वहां आपको एक मौका मिलने की अधिक संभावना है। सवाल पूछने पर वह आप पर क्रोधित हो सकते हैं। लेकिन यह भी अपने-आप में एक प्रतिक्रिया या जवाब है। यदि वे आपके प्रश्न को पूरी तरह से अनदेखा करते हैं, तो उनके किसी सहयोगी या उनके साथ उस स्थान पर मौजूद किसी अन्य व्यक्ति से जवाब लेने का प्रयास करें। ये लोग ऐसा दिखाना चाहते हैं मानो वे प्रेस के लिए खुले हैं। इसलिए उनसे आपको कोई उपयोगी उद्धरण या बयान मिल सकता है।

– ऊना हजदारी, ग्राउंडट्रुथ फैलो, पोलैंड

7. पूर्वाग्रह मुक्त रहें, सही पात्र खोजें

पूर्वाग्रह के बारे में एक बात समझना जरूरी है। आपकी रिपोर्ट किसी पुरानी धारणा पर आधारित नहीं होनी चाहिए। तथ्य से सच्चाई का पता चले। मुझे लगा कि इटली में सार्वजनिक बहस के सिकुड़ने और लोकतंत्र के क्षरण के बारे में रिपोर्ट करने का पुराना नजरिया हावी है। जैसा कि पुरानी शैली का उपयोग करके फासीवाद का लेबल लगा दिया जाता है। मुझे एहसास हुआ कि रिपोर्टिंग प्रक्रिया के दौरान ऐसा करना अनुचित है। पत्रकार को ऐसे पूर्वाग्रह से मुक्त होकर वास्तविक रिपोर्टिंग करनी चाहिए। आंदोलन के लोगों से संपर्क करें और उनसे आप खुले नजरिये के साथ मिलकर बात करें। ऐसा करने पर ही आप बेहतर ढंग से समझ सकेंगे कि वे किस पर विश्वास करते हैं।

इटली का मामला भारत की तुलना में अलग है। इटली में तानाशाही कम क्रूर और कम स्पष्ट है। उदाहरण के लिए, भारत में सत्तावादी शासन संबंधी रिपोर्ट की गहराई में जाना महत्वपूर्ण है। हर राजनीतिक विचारधारा में तर्क-जाल और अंतर्विरोध होते हैं। लेकिन दुनिया भर के मौजूदा तानाशाही शासन में यह काफी मात्रा में हैं।

ऐसे मामलों में असली खबर तक पहुंचने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि संबंधित पात्रों के अपने शब्दों के माध्यम से वह बात निकालें। आपको साक्षात्कार के लिए सही पात्रों को ढूंढना होगा। पर्दे के पीछे मौजूद अतिवादी या उन्मादी लोग काफी महत्वपूर्ण संसाधन हैं। उदाहरण के लिए, लुका टोकालिनी हमारे लिए एकदम सही चरित्र था क्योंकि पाठक उसे नहीं जानते थे, जबकि लेगा के आंतरिक समूह में उसे अच्छी तरह से जाना जाता था।

– लोरेंजो बैगनोली, ग्राउंडट्रुथ फेलो, इटली।


यह लेख पहली बार ‘द ग्राउंडट्रुथ प्रोजेक्ट’ द्वारा यहां प्रकाशित किया गया था। अनुमति के साथ इसका पुनः प्रकाशन किया जा रहा है। ‘डेमोक्रेसी अनडन प्रोजेक्ट’ के तहत यह रिपोर्ट की गई है। इसे ‘द ग्राउंडट्रुथ प्रोजेक्ट’ ने मैकआर्थर फाउंडेशन और हेनरी लूस फाउंडेशन के सहयोग से तैयार किया है। ग्राउंडट्रुथ के न्यूजलेटर की सदस्यता यहां से प्राप्त की जा सकती है। ट्विटर, फेसबुक और इंस्टाग्राम पर फॉलो करें।


केविन डगलस ग्रांट ‘द ग्राउंडट्रुथ प्रोजेक्ट’ के सह-संस्थापक और मुख्य कंटेंट अधिकारी हैं। वह रिपोर्ट फॉर अमेरिका के उपाध्यक्ष भी हैं। वह पहले ग्लोबल पोस्ट में विशेष रिपोर्ट के वरिष्ठ संपादक थे। उन्होंने दुनिया भर में रिपोर्टिंग परियोजनाओं का नेतृत्व किया। उनके काम को एडवर्ड आर मुरो, अल्फ्रेड आई ड्यूपॉन्ट-कोलंबिया विश्वविद्यालय और ऑनलाइन जर्नलिज्म अवार्ड जैसे सम्मान मिले हैं।

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