डीप-फेक भूगोल: एआई के जरिए सैटेलाइट चित्रों में फर्जीवाड़ा

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इमेज: शटरस्टॉक

तीन सितंबर 2019 को न्यूयॉर्क के सेंट्रल पार्क में आग लगने की एक सैटेलाइट इमेज सामने आई। इसमें धुएं का उठता गुबार और आग की लपटों का दृश्य था। लेकिन यह सैटेलाइट इमेज में छेड़छाड़ कर बनाई गई फर्जी तस्वीर थी। दिवाली की रात भारत में रोशनी और आतिशबाजी की एक सैटेलाइट इमेज हर साल वायरल की जाती है। लेकिन यह भी फर्जी तस्वीर होती है। यह दिवाली की रात की नहीं होती, बल्कि इसे कई तस्वीरों को जोड़कर बनाया जाता है।

उक्त दोनों तस्वीरें ‘लोकेशन स्पूफिंग‘ का उदाहरण हैं। इसमें फर्जीवाड़ा करके कोई नकली स्थान बनाया जाता है। वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन में इस पर महत्वपूर्ण जानकारियां सामने आई हैं। ऐसी फर्जी तस्वीरें अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग उद्देश्यों के तहत बनाई जाती हैं। लेकिन ये तस्वीरें आपको वास्तविक स्थान की असली फोटो जैसी दिखेंगी। आधुनिक तकनीक के विकास के साथ ऐसा फर्जीवाड़ा भी लगातार बढ़ रहा है। शोधकर्ताओं के अनुसार ‘डीप-फेक भूगोल‘ एक बड़ी समस्या बन सकता है।

शोधकर्ताओं की एक टीम ने फर्जी उपग्रह तस्वीरों का पता लगाने के नए तरीके खोज निकाले हैं। इस टीम ने तीन शहरों की उपग्रह तस्वीरों का मिश्रण करके फर्जी तस्वीर बनाई। इसमें वीडियो और ऑडियो फाइलों की हेरीफेरी भी की गई।  इस टीम ने दिखाया कि यह फर्जीवाड़ा कैसे होता है। रिसर्च टीम ने चेतावनी दी कि अगर इस फर्जीवाड़े को नहीं रोका गया तो फर्जी भौगोलिक डेटा का खतरा बढ़ता जाएगा। इसलिए भौगोलिक तथ्यों की जांच के लिए एक सिस्टम बनाना जरूरी है।

वाशिंगटन यूनिवर्सिटी में भूगोल के एसोसिएट प्रोफेसर बो झाओ  ने इस शोध टीम का नेतृत्व किया। इसकी रिपोर्ट  अप्रैल 2021 में कार्टोग्राफी एंड ज्योग्राफिक इनफॉरमेशन साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुई। बो झाओ कहते हैं: ”यह सिर्फ फोटोशॉप करके फर्जी फोटो बनाने तक सीमित मामला नहीं है। इसमें किसी डेटा को बिल्कुल असली जैसा दिखाया जा रहा है। इसलिए इन चीजों की तथ्य-जांच जरूरी है। इसके लिए तकनीक पहले से ही मौजूद हैं। हम उन्हीं तकनीकों का उपयोग करने की संभावना तलाश रहे हैं। ऐसे फर्जीवाड़े से मुकाबला करने की रणनीति बनाना जरूरी है।”

मानचित्र बनाने के मामले में पहले भी कई तरह की त्रुटियां होती आई हैं। किसी मानचित्र में कोई नकली ‘स्थान‘ दिखने तथा अन्य प्रकार की अशुद्धियों के मामले प्राचीन काल से चले आ रहे हैं। किसी वास्तविक स्थान को एक मानचित्र के रूप में तैयार करने के दौरान ऐसी गल्तियां होना स्वाभाविक है। कोई भी नक्शा किसी स्थान को ठीक उसी तरह नहीं दिखा सकता, जैसा वह वास्तविक रूप में है।

कई बार नक्शों में कुछ अशुद्धियाँ उन्हें बनाने वालों द्वारा जान-बूझकर की जाती हैं। इसे ‘स्पूफ करना‘ या ‘स्पूफिंग‘ कहा जाता है। कॉपीराइट उल्लंघन के आरोप से बचने के लिए किसी मानचित्र में जान-बूझकर नकली शहर, पहाड़, नदी या किसी अन्य भौगोलिक चीज को डाल दिया जाता है। इसे पेपर टाउन कहा जाता है। 1978 में मिशिगन के परिवहन विभाग ने एक आधिकारिक राजमार्ग के मानचित्र में बीटोसू और गोबलू नामक दो काल्पनिक शहरों का नाम डाल दिया था। परिवहन विभाग के प्रमुख अधिकारी ने इन दो फर्जी शहरों का नाम दिया था। उन्होंने अपने कॉलेज के दिनों में फुटबॉल खेल के दौरान उपयोग में आने वाले दो नारों के आधार पर ये दोनों नाम रखे थे।

अब भौगोलिक सूचना प्रणाली में काफी विकास हुआ है। गूगल अर्थ तथा विभिन्न उपग्रह इमेजिंग प्रणालियों के कारण वास्तविक डेटा लेना संभव हुआ है। इसके बावजूद लोकेशन स्पूफिंग का फर्जीवाड़ा भी काफी उन्नत ढंग से हो रहा है। यह भौगोलिक संस्थाओं के लिए बड़ी चिंता का विषय बन गया है। ‘नेशनल जियोस्पेशियल इंटेलिजेंस एजेंसी‘ के निदेशक ने वर्ष 2019 में इस बड़े खतरे से आगाह किया। ‘अमेरिकी रक्षा विभाग‘ के लिए नक्शे की आपूर्ति और उपग्रह तस्वीरों के विश्लेषण का दायित्व इसी एजेंसी पर है। इस एजेंसी का मानना है कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) की मदद से फर्जीवाड़ा की गई उपग्रह तस्वीरों से राष्ट्रीय सुरक्षा को गंभीर खतरा हो सकता है।

बो झाओ और उनकी टीम ने फर्जी उपग्रह इमेज बनाने के तरीकों का अध्ययन किया। इसके लिए उन्होंने एक ‘एआई‘ फ्रेमवर्क का उपयोग किया, जिसके माध्यम से अन्य प्रकार की डिजिटल तस्वीरों में हेरफेर की जाती है। इमेज फिल्टर का उपयोग करके एक बिल्ली के चेहरे के साथ किसी मनुष्य के चेहरे का मिश्रण करने जैसी चीजें आपने देखी होंगी ऐसा ही प्रयोग भौगोलिक तस्वीरों के साथ किया गया। एक ‘एआई‘ फ्रेमवर्क को किसी मानचित्र के साथ जोड़ा गया। ऐसा करने पर एल्गोरिथम किसी शहरी क्षेत्र की उपग्रह तस्वीरों की कुछ विशेषताओं को लेकर एक अन्य मानचित्र के साथ मिश्रण करके एक डीप-फेक फोटो बनाता है।

कई तस्वीरों को मिलाकर एक नई तस्वीर में कैसे बदला जाता है, यह दिखाते हुए चित्रण। इसमें एक बेस मैप (सिटी ए) को एक डीपफेक उपग्रह छवि मॉडल में डालकर एक नकली उपग्रह छवि (दाएं) बनाई गई है। यह मॉडल दूसरे शहर (सिटी बी) के बेस मैप और सैटेलाइट इमेज कुछ हिस्सों को अलग करके बनाया गया है। फोटो: झाओ एट एल, 2021, कार्टोग्राफी एंड ज्योग्राफिक इनफॉरमेशन साइंस।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने तीन शहरों के साथ दिलचस्प प्रयोग किया। वाशिंगटन के ‘टैकोमा’ और ‘सिएटल’ के साथ चीन की राजधानी बीजिंग को लिया गया। इसमें ‘टैकोमा’ को ‘बेस मैप‘ शहर बनाया गया। इसके मानचित्र पर दो अन्य शहरों यानी ‘सिएटल’ और ‘बीजिंग’ की विशेषताओं जोड़ दिया। यह प्रयोग किया गया कि कैसे ‘टैकोमा‘ की डीपफेक फोटो बनाने के लिए ‘सिएटल’ और ‘बीजिंग’ शहरों की किन भौगोलिक विशेषताओं और शहरी संरचनाओं को शामिल किया जा सकता है। ‘टैकोमा’ के मानचित्र पर अन्य दोनों शहरों की उपग्रह तस्वीरों को इम्पोज करके फर्जी तस्वीरें बनाई गई।

नीचे उदाहरण में तस्वीरें देखें। मैपिंग सॉफ्टवेयर में टैकोमा के एक इलाके को (ऊपरी बाएं) और एक उपग्रह छवि (शीर्ष दाएं) को दिखाया गया है। उसी इलाके की बाद की डीपफेक उपग्रह तस्वीरें ‘सिएटल‘ और ‘बीजिंग’ में भी दिखती हैं। कम ऊंची इमारतों और हरियाली वाले निचले बाईं ओर के हिस्से में ‘टैकोमा’ शहर का नकली ‘सिएटल-रूपी‘ संस्करण दिखता है। इसी तरह, ‘टैकोमा‘ की फर्जी फोटो में नीचे दाईं ओर बीजिंग की ऊंची इमारतें दिखती हैं, जिनकी छाया के कारण संरचनाओं का अंधेरा है। फिर भी दोनों में सड़कों का नेटवर्क और भवनों का स्थान एक ही समान है। तस्वीरों का इतनी बारीकी से मिश्रण ‘एआई’ के कारण संभव हुआ।

यह ‘टैकोमा‘ शहर के एक इलाके के असली और नकली नक्शे और उपग्रह चित्र हैं। ऊपर बाईं ओर मैपिंग सॉफ्टवेयर से एक इमेज दिखती है, और ऊपर दाईं ओर उस इलाके की वास्तविक उपग्रह इमेज है। नीचे उसी इलाके की दो नकली उपग्रह तस्वीरें हैं। इनमें निचले बाएं वाली तस्वीर ‘सिएटल‘ को जोड़कर बनी है। निचले दाएं वाली तस्वीर बीजिंग की इमेज से बनाई गई है। फोटो: झाओ एट एल, 2021, कार्टोग्राफी एंड ज्योग्राफिक इनफॉरमेशन साइंस।

शोधकर्ताओं के अनुसार आम लोगों को ऐसी असली और नकली तस्वीरों का फर्क पता नहीं चल पाएगा। कोई व्यक्ति किसी फोटो की खराब गुणवत्ता के लिए रंगों और छाया का मामला समझ सकता है। लेकिन विशेषज्ञों को किसी ‘नकली‘ फोटो की पहचान के लिए छवि प्रसंस्करण के अधिक तकनीकी पहलुओं, जैसे कि रंग हिस्टोग्राम, आवृत्ति और स्थानिक डोमेन पर ध्यान देना होगा।

बो झाओ के अनुसार ऐसी नकली उपग्रह इमेज का उपयोग किसी सार्थक उद्देश्य के लिए भी किया जा सकता है। एक लंबी काल-अवधि में कुछ भौगोलिक क्षेत्रों की विशेषताओं और जलवायु परिवर्तन को समझने के लिए इनका उपयोग हो सकता  है। कुछ स्थान ऐसे हो सकते हैं, जिनकी पुरानी तस्वीरें उपलब्ध नहीं हैं। कुछ मामलों में भविष्य के आकलन के लिए भी ऐसी नकली इमेज का सार्थक उपयोग हो सकता है। इसलिए मौजूदा विशेषता के आधार पर नई छवियां बनाना, और उन्हें स्पष्ट रूप से नकली के रूप में याद रखना उपयोगी हो सकता है। इससे कई प्रकार की कमियों को भरा जा सकता है और एक दृष्टिकोण प्रदान करने में मदद मिल सकती है।

बो झाओ के अनुसार इस अध्ययन का लक्ष्य यह दिखाना नहीं था कि भू-स्थानिक डेटा को गलत साबित किया जा सकता है। इसके बजाय, कोशिश यह है कि नकली तस्वीरों का पता कैसे लगाया जाए ताकि भूगोल के क्षेत्र में भी डेटा साक्षरता उपकरण बनाए जा सकें। जिस तरह आज किसी फर्जी सूचना के लिए तथ्य-जांच सेवाएं उपलब्ध हैं। उन्होंने कहा “प्रौद्योगिकी का विकास जारी है। इस अध्ययन का उद्देश्य भौगोलिक डेटा और सूचनाओं की सर्वांगीण समझ को प्रोत्साहित करना है, ताकि हम उपग्रह छवियों या अन्य भू-स्थानिक डेटा को विश्वसनीय बना सकें। हम आवश्यकता पड़ने पर तथ्य-जांच जैसे जवाबी कदम उठाने के लिए और अधिक भविष्योन्मुखी सोच विकसित करना चाहते हैं।“

यह लेख यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन न्यूज में प्रकाशित हुआ था। अनुमति के साथ यहां पुनः प्रकाशित किया गया है। मूल लेख का लिंक। 

अतिरिक्त संसाधन

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किम एकार्ट  ‘यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन न्यूज’ की पब्लिक इनफॉरमेशन ऑफिसर हैं। वह सामाजिक विज्ञान, कानून और सामाजिक कार्य जैसे विषय कवर करती हैं। यह विश्वविद्यालय सिएटल, वाशिंगटन में स्थित है

 

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